कहां सुदामा बापुरो। सतीश सृजन
दोस्तों मैं एक बार फिर से आपके लिए लेकर आया हु सतीश जी सृजन की एक और कविता जिसका शीर्षक है कहां सुदामा बापुरो। मुझे लगता है यह सिर्फ कहने को कविता है असल मे यह यतार्थ वर्णन है। श्री कृष्ण और सुदामा के प्रेम का। कवि ने इस कविता को इतने सुंदर रूप से लिखा है कि महसूस ही नहीं होता कि हम द्वापर युग का प्रसंग पढ़ रहे है। इसके साथ ही इस कविता में कवि ने सुदामा की आर्थिक स्थिति के साथ उनकी मनोस्थिति का, सुदामा की पत्नी का एक पत्नी के रूप में और एक माँ के रूप में चरित्र का सुंदर वर्णन किया है। साथ ही करुणानिधान श्री कृष्ण का बाल सखा के प्रति अलौलिक प्रेम को दर्शाया है जो कि निःशब्द है। यह थोड़ी भावुक कर देने वाली कविता है। अगर आप जल्दी भावुक हो जाते हो तो तो अपनी भावों का बांधकर रखिए क्योंकि यह कविता आपके भावों को आँखों से बहाने की क्षमता रखती है।
कहां सुदामा बापुरो। सतीश सृजन
कभी विप्र सुदामा पत्नी को, है सखा कृष्ण बतलाया था गुरुकुल में जब वह पढ़ते थे, हरि ने उन्हें मीत बताया था
यह भी बोला कि, कृष्ण मेरे बचपन से ही है परम मित्र
अब भी प्रतिपल छाया रहता मानस पर एक रमणीय चित्र
अब तो द्वारका के धीश हैं वे
अब तो द्वारका के धीश है
वे राजाओं में बड़ राजा हैं केशव नरेश है
जन पालक न्याय धर्मी महाराजा हैं
यह बात बताए बीत गए कई वर्ष माह, सप्ताह दिवस
पर आज सुदामा पत्नी ने एक प्रश्न किया, जिज्ञासा वश
एक बात नाथ बतलाओ तो, क्या श्याम अभी भी तेरे यार
अब भी है स्नेही वैसे ही, क्या वैसा ही है अमिट प्यार
धीरे स्वर में ब्राह्मण बोला, प्रिय पूछ रही हो क्यों ऐसे
मुझे आशा है विश्वास भी है, मेरे कान्हा आज भी है वैसे
वह नाथ हमारे मीत सखा, भगवान भाव भय भक्ति है
मेरी पूजा वे, आराधन वे, मधुसूदन जीवन शक्ति है
उनके बिन ना अस्तित्व मेरा, यह जीव भी बईमानी है
मेरे कृष्ण त्रिलोकी अधिनायक, मोहन की अथक कहानी है
जैसे रखे उनकी इच्छा, जैसे रखे उनकी इच्छा
मैं कृष्ण कृष्ण ही गाता हूं
दिन रात उन्हीं को भजता हूं
दीनता में भी सुख पाता हूं
सहसा क्यों ऐसे भाव जगे, भद्रे क्यों पूछ रही ऐसे?
क्या बात है शंका करने की, कुछ कहा किसी ने हो जैसे
नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं, मन में जागी जिज्ञासा है
प्रिय मित्र अगर है श्याम प्रभु, नहीं भूलेंगे यही आशा है
यदि रुष्ट ना हो एक बात कहूं, यदि रुष्ट ना हो एक बात कहूं
तुम क्यों ना द्वारका को जाओ
प्रिय मित्र भी है, और राजा भी, कुछ कान्हा जी से ले आओ
क्या कहती हो मेरी भाग्यवान, श्री कृष्ण द्वारे पर जाऊं
अब तक की बनी मित्रता को, मिट्टी में मिश्रित कर आऊ
जिस दिन कोई मित्र बने मंगता, मित्रता उसी दिन करे अंत कभी भूल के ऐसा ना करिए, प्रतिदिन समझाए सभी संत
गए बीत तीन पन वैसे भी, चौथे में क्या करनी आशा
वृध्दापन खुद में ही दुख है, हो चाहे धनी अच्छा खासा
जैसे बीते वैसे जी लो, कम मिले तो उतना ही खाओ
सब दुख सहकर भूखे रह लो पर, मित्र से मांगने ना जाओ
जो बात मुझे ही ना भाए, वो मन को क्या समझाऊंगा
कुछ भी हो जाए लेकिन, मैं द्वारका कभी ना जाऊंगा
स्वामी! बच्चे भूखे रहते कभी दिन भर, तो कभी दो-दो दिन
उन्हें पानी पिला सुला देती, भोजन के एक दाने के बिन
मैं स्वयं रहूं भूखी कितनी, मुझे सब अवसाद सुहाता है
संतान का दुख दारुण लगता, प्रतिदिन यह हृदय भर जाता है भूखा कर सकता पाप कोई, वो कितना बड़ा सयाना हो
सब न्याय नियम तो ठीक लगे, तन वस्त्र, उधर भर खाना हो
वैसे भी भिक्षा मांगे हम, कभी इस घर में कभी उस घर में
एक बार यदि कृष्ण से ले ले, मिट जाए जाना दरदर में
इसमें तो लाज की बात नहीं, जब श्याम तुम्हारे हम जोली उनके दर पर भी जा मांगो, कांधे पर डाली जब झोली
राजा यदि थोड़ा भी देगा, औरों से कई गुना होगा
कुछ दिन तो सुख से निकलेंगे, आगे जो होना है होगा
कभी भूखे, अध भूखे, सोते भर पेट अन्न तक नहीं दिया
बच्चों के तन कंकालों पर हे नाथ! कभी क्या ध्यान दिया
नीचे के तो सबके वस्त्र फटे, ऊपर का भी तन वसन हीन
तन भूखा है, मन भूखा है, हम तुम बच्चे सब दीन हीन
मिट्टी बर्तन, कुटिया टूटी, सब जगह अभाव की रेखा है
जब से मैं ब्याह के आई हूं, मैंने केवल दुख देखा है
ना उलाहना ना ताना है, ना उलाहना ना ताना है
हम जीवन साथी सच्चे हैं
मेरा मन दुख से भर जाता है
आते समक्ष जब बच्चे हैं
खोदो सावा गुई बजरा मिलता, प्रतिदिन यदि खाने को
परिहास में भी मैं ना कहती, कान्हा के द्वारे जाने को
मेरी लुगरी ध्यान से देखो तो, मेरी लुगरी ध्यान से देखो तो
100 से भी अधिक है गोल छेद
जब दशा देखती पुत्रों की, उड़ता मन में अति बृहद खेद
सब जगह मांगने हो जाते, भल मानुष हो या अपलक्षी
सौ स्वर्णकार की खुट खुट से, एक धम लोहार की है अच्छी
पहले तो सुदामा पत्नी पर हुआ रुष्ट, बहुत और खींच गया
कई बार चिरौरी करने से, एक पति का हृदयपसीज गया
है पता कि बहुत गरीबी है, तुम निस दिन विपदा सहती हो
वैसा ही करूंगा अब आगे, जैसा जैसा तुम कहती हो
पर धोती भी तो एक ही है, बिन धोए पहन के जाऊंगा
कई जगह से फटकर जीण हुई, यह जानू वहां लज्जाऊंगा
एक काम करो, कहीं कैसे भी, कुछ चावल मांग के ले आना
राजा, बेटी, साधु के घर चाहिए नहीं खाली जाना
अगले दिन निकट पड़ोसन से कुछ चावल मांग के ले आई भरतार को अपने विदा किया, वसुधा मन में कुछ हर्षायी
ब्राह्मण पत्नी के मन में आज, कुछ कम लगती थी दैन्य तपन श्री कृष्ण करेंगे अनुकंपा, जग गई आस और कई सपन
बचपन का बिछुड़ा श्याम सखा, पग पग करता केशव को नमन
भूखा प्यासा एक भक्त विप्र, अनवत करे द्वारका गमन
थी प्यास लगी, था रिक्त उदर, तन पर सूरज तपता जाए
ठोकर लगती, कांटे चुपते, पर कृष्ण कृष्ण जपता जाए
सोचे जाऊं या लौट चलूं, सोचे जाऊं या लौट चलूं
अंतर मन रहा है डोल मेरा
मैं भिक्षुक हूं कान्हा राजा, उनके आगे क्या मोल मेरा
कभी तेज चले कभी रुक जाए, पग कंटक घाव सताए बहुत द्वारिका पुरी है बसी दूर, पहुंच कैसे घबराए बहुत
कहती थी भूख ठहरने को, आगे बढ़ने का ना था बल
पर कृष्ण मिलन की अभिलाषा, पल पल कहती बस चलता चल
उबड़ खाबड़ ककरी पथ, जूता भी नहीं था पाव में
सिर ऊपर धूप जलाए बदन, मन कहे बैठ जा छाँव में
चलता जाए भजता जाए, दुविधा में बीता पथ सारा
पैरों ने उत्तर दिया मगर, हरिभक्त नहीं हिम्मत हारा
पथ पूछ पूछत पहुंच गया, श्री कृष्ण कृपा से कृष्ण महल
हरि भक्त सुदामा वहां खड़ा, जिस द्वार पर प्रहरी रहे टहल रखवालो का अभिवादन कर और औचित्य परिचय बतलाया
हे द्वारपाल! हरि से कह दो, द्वारे पर एक याचक आया
मेरा नाम सुदामा पांडे है, श्री कृष्ण हमारे परम सखा
बड़ी दूर से मिलने आया हूं, कृपया कह दो जो मैंने कहा
द्वारिकाधीश को किया नमन, कर जोड़े द्वार पाल बोला
हे जगतपाल एक भिक्षुक है, अशक्त गात दिखता भोला
प्रभु द्वार पर याचक आय खड़ा, जिसकी हालत बड़ी माली है दुर्बल निराश, यति दीन हीन, आया एक अजब सवाली है
सब हार देह के हैं दिखते और वसन फटे ना पनही पग
नैराश्य झलकता है मुख पर, कर में लकुटी डोलत है डग
प्रभु राज महल की महिमा, लग अचरज नैनों से निरख रहा लगता वह कोई परदेसी, पग पग चलकर कुछ परख रहा
मुस्काकर कृपा सिंधु बोले सेवक! पूछो उसके मन की
इतना अनुदान उसे दे दो, ना रहे कमी उसको धन की
धन धान स्वर्ण हीरे मोती, जो कुछ मांगे पूरा भर दो
याचक को भोजन करवाकर, अंदर बाहर से खुश कर दो
पहरी जरा मुझे बताओ तो, द्वारका में भी कोई भिक्षुक है?
हो जीवन में जिसके अभाव या कुछ पाने का इच्छुक है?
या है आया कोई परदेसी या भटक गया है सहज डगर
कुछ भी हो लेकिन, राही को कर दो प्रसन्न बिन अगर मगर उसका परिचय क्या है, पूछा है कौन कहां से वह आया?
क्या नाम, वह कहां को जाना है, मेरा पता कहां से है पाया?
माया पति लीला कर रहे थे, सब जान के भी बने अनजाने त्रिलोक में कौन सा प्राणी है, जिसको माधव ना पहचाने
बचपन से लीला ही करते, पहले की बान पड़ी अब भी
सब जान रहे, पहचान रहे, अभिनय करते माधव तब भी
मन में गिरधर मुस्काए अजब, जाने द्विज की लाचारी को
भेजन वाली को भी, जाने ब्राह्मण पत्नी बेचारी को
इतने पर द्वारपाल बोला, वो विप्र दूर से आया है
हरि दर्शन का अभिलाषी है, लोगों ने द्वार लगाया है
वह निपट भिखारी नाथ दिखे, पट चीरा पिछला अगला है
पर खुद को कहता कृष्ण सखा, मुझको लगता वह पगला है उत्सुकता का अभिनय करके, नटवर बोले कहकर अच्छा!
क्या नाम है तनिक बताओ तो, है कौन मेरा सहचर सच्चा
मैंने पूछा था कि कौन हो तुम, तब नाम सुदामा बतलाया
उसके अनुनय में लघुता थी, इसलिए आप तक मैं आया
क्या कहा, जरा! तुम फिर से कहो, क्या कहा, जरा! तुम फिर से कहो
याचक का नाम सुदामा है, अरे वह तो सच में मित्र मेरा,
मेरे हिय का अभिरामा है
सहसा उठ खड़े हुए केशव
जब नाम सुना निज कानों से
विबल हो दौड़ पड़े तक्षण
कोई आया प्यारा प्राणों से
बिन मुकुट व बिना उपान के, निज भक्त प्रेम में दौड़ पड़े
हरि की लीला हरि ही जाने, दरबारी देखे चकित खड़े
अपलक थी तीनों पटरानी, अपलक थी तीनों पटरानी
भला कौन है? ऐसा अति विशेष
ब्रह्मा विष्णु चलकर आए, या आए हैं चलकर महेश
कोई गोकुल से मिल ने आया या मथुरा से कोई आया है?
है गुरु संदीपन, गर्ग ऋषि, किसने हरि को भरमाया है?
कोई कुंजर भक्त है संकट में या किसी की चीर बढ़ाना है
फिर आज चले नाई बनने या पार्थ को रथ हकवाना है
पहले तो नाम भी नहीं सुना, कोई ऐसा भी व्यवहारी है
जिसको मिलने पैदल भागे, बन तन मन से आभारी है
द्वारे पे सुदामा सोच रहे, द्वारे पर सुदामा सोच रहे मैं मंगता भिक्षुक बेचारा
क्यों कृष्ण मिले मुझ जैसे को, वह नृप में बिल्कुल लाचारा
मुझे ठेल पठाई वसुंधरा, अन्यथा मैं यहां नहीं आता
चलो लौट चलू अपने घर को, यहां रुकना मुझे नहीं भाता
कुछ आते जाते घूर रहे, कुछ मुझ पर हंसते जा रहे हैं
यहां ज्यादा रुकना ठीक नहीं, सब मुझे देख इठला रहे हैं
कहा राजेश्वर है मेरे श्याम, कहा मैं दरिद्र हूं दरदर का
प्रहरी को नहीं बताना था, मैं संगी हूं दामोदर का
यहां खड़ा सुदामा दुविधा में, वहां कृष्ण अनवरत भाग रहे सुरगण सब नभ से देख रहे, है भाग्य विप्र के जाग रहे
सेवक जूता लेकर भागे, नंगे पैरों माधव आगे
झटपट पहुंचे जहां द्वार बना, मेरा सखा कहां? पूछन लागे
इत कृष्ण भागते मित्र और, विप्र लौटता बिना मिले
तभी कृष्ण पुकारे, सुनो सखा! दौड़े आए और लगे गले
रुध गया गला हरि संगी का, नैनों से बहती अश्रु धार
अति दीन सुदामा मन सोचे, कितना निर्मल मेरा कृष्ण यार कितना विरोध भरा चिंतन था, मैं हरि को ना पहचान सका रहनी मैली, ओछी करनी, सो श्याम सखा को ना जान सका
रोली बन गए थे वे दोनों, लगी चून हद्रका मिल गई हो
आलिंगन में लिपटे थे यूं, जो बूंद जलद में घुल गई हो
प्रभु बोले मित्र कहां थे? तुम बड़ी देर कर दिया आने में
प्रतिदिन में राह देखता था, तुम सा नहीं कोई जमाने में
रखवाले सोचे कौन है यह? जिसे कान्हा खुद लेने आए
कहां दीन भिखारी यह ब्राह्मण, कहां तीन लोक नृप यदुराय द्वारिकाधीश के अतिथि में, कोई बात बड़ी है मानन् की
सब मे लालसा थी उमड़ रही, आगंतुक परिचय जानन की
श्री कृष्ण बताए सब जन को, है गुरुकुल से ही बाल सखा
मेरे परम स्नेही, मीत यार, इन सम अब तक ना कोई दिखा
सब द्वारपाल सिर झुके हुए लज्जा से सारे भरे से थे
कहीं विप्र ना कह दे केशव से, शकित से सारे डरे भी थे
इतने पर सारथी रथ लाया, दोनों को झुक कर नमन किया आरोही होकर विप्र संग हरि, राज भवन को गमन किया अचरज, उल्लास व भय मिश्रित, ब्राह्मण निरखे चारों दिश में
नर नारी सेवक दरबारी सोचे, क्या महिमा है इसमें?
अंतः पुर जाकर यदुनंदन, सिंहासन पर स्थान दिया
अतिशय विशिष्ट हो जो कोई, वैसे हरि मित्र को मान दिया
वही मीत बहुत संकोच में था, निज दीन हीन सी दशा देख कृष्ण कृपालु आज बहुत, मिटने थे विप्र के कर्म लेख
जब लगे पखार मित्र चरण, पग कंटक थे जाने कितने
इससे पहले कभी नहीं हुए हैरान दुखी माधव इतने
एड़ी बवाई, नाखून बड़े, तलवों में शूल का जाल घना
जिसे देख दुखित हुए कृष्ण बहुत, मेरे यार का ऐसा हाल बना
ननन से नीर गिरे हरि के और चरणों पर ढलते जाए
लाए चरण काट काढ़े, मेहमान पैर मलते जाए
घनश्याम निराश हुए इतना आंसूओ से तर हुआ मित्र का पग एक एक काँटा काढ़े माधव, मरहम लेपा पद की रग रग
नहला कर वस्त्र दिया मखमल, पग में उत्तम जूता पहना
तर्पण में देख स्वयं का मुख, ब्राह्मण भाए गल शुभ गहना
संग बैठ सुदामा करुणाकर, खाया मन भावन बहु व्यंजन
रानी संग हँसी ठिठोली कर, किया प्रिय सखा का मनोरंजन
अतिथि के भवन में, अतिथिदेव निरखे निज वस्त्र, प्रत्येक अंग इतने में माधव फिर आए, तीनों रानी को लिए संग
कृतज्ञ सुदामा खड़े हुए, कृतज्ञ सुदामा खड़े हुए
आपस में प्रेम जुहार हुआ
फिर हरि ने हास परिहास किया, मेहमान हृदय की आस छुआ
प्रयोजन क्या था आने का? प्रभु से ज्यादा कोई क्या जाने मर्यादा सदैव बनी रहे, सो कृष्ण बने थे अनजाने
प्रभु पूछे मित्र सुदामा से, कहो घर पर सब कुछ कैसा है?
परिवार है कितने लोगों का, जो चाहा था सब वैसा है?
पत्नी बच्चों के बारे, में संकोच में कुछ ना बतलाया
यह भी बोला सब शुभ मंगल, प्रभु पल पल है तेरी छाया
मुस्काकर माधव पूछते हैं, भाभी ने भेट क्या भेजा है?
कुछ तो देकर भेजा होगा, मुझे दो! उसे कहां सहेजा है?
संकोच, लाज, लाचारी बस पोटली छुपाए रख अंगुल
क्या कहे दीन निर्धन, साथी मंगनी का लाया है तंदुल
अंतर मन की दुर्बलता को, मधुसूदन सब कुछ रहे देख
आ गई घड़ी सौभाग्य लिए, अब है मिटना दुर्भाग्य लेख
ब्राह्मण लाया था जो चावल, हाथों से बहुत छुपाया था
बरजोरी करके छीन लिया, जिसे देख श्याम हर्ष आया था भाभी ने भेजा भेंट मुझे, तुम उसे छुपा कर रख रहे हो
मैं पूछ रहा हूं ?कुछ लाए, तुम कुछ नहीं कुछ नहीं बक रहे हो
घनश्याम कहे वैसे ही हो, गुरुकुल में मिले थे तुम जैसे
सब रहीला चुप के खा लिया था, बोलो! उसे भूलू मैं कैसे
अमृत्व प्रेम में सनि तंदुल, सब आज अकेले खाऊंगा
हुआ बहुत समय अच्छा खाए, खाकर तृप्ति पा जाऊंगा
यह कहकर जगत के दीनपाल, पहली मुट्ठी भर जो खाया बेखबर सुदामा क्या जाने, धरती के सारे सुख पाया
दूजी मुट्ठी तंदुल बदले, चिर घन वैभव सुख नाम किया
निर्मूल दीनता किया तभी, भक्ति फल में हरि धाम दिया
जब अगली मुट्ठी भरे कृष्ण, रुक्मणी नयन अनुरोध किया
प्रभु! अपने लिए तो कुछ रख लो, दो मुट्ठी में दो लोक दिया
हरी लीला से अनभिज्ञ, विप्र माधव महिमा ना जान सका
बना धरा स्वर्ग का महाधनी, पर हरि को ना पहचान सका
श्री कृष्ण चले गए रानी संग, यहां धनी सुदामा किया शयन आहार विहार उपरांत भोर हुआ विदा, विप्र लिए सजल नेन
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कहां सुदामा बापुरो भाग द्वितीय
निष्कर्ष
उम्मीद करता हु दोस्तों सतीश सृजन जी की यह कविता कहां सुदामा बापुरो कृष्ण के प्रेम की भाँति आपके दिल मे उतर गयी होगी। इसे कृष्ण भक्तों के साथ शेयर जरूर करे। कृष्ण भक्त इसलिए कह रहा हु क्योंकि :-
कृष्ण की महिमा वो जाने, जिसने कृष्ण को जाना है
वो अभागा क्या जाने, जिसने हरि को नही पहचाना है
Yakinan aankhon mein Pani aa gya